CRPF: सीआरपीएफ के सहायक कमांडेंट बिभोर को शौर्य चक्र मिलने की कहानी, नक्सलियों के IED हमले में खोए थे पैर

देश के सबसे बड़े केंद्रीय अर्धसैनिक बल, सीआरपीएफ में अदम्य साहस और सर्वोच्च कर्तव्य परायणता का प्रदर्शन करने वाले जांबाज कमांडर, सहायक कमांडेंट बिभोर कुमार सिंह को गणतंत्र दिवस पर शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया है। सीआरपीएफ की 205वीं बटालियन ‘कोबरा’ में तैनाती के दौरान 25 फरवरी 2022 को जहानाबाद के घने जंगलों में नक्सलियों के साथ एक मुठभेड़ हुई थी। नक्सलियों ने उस इलाके में कई जगहों पर इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) दबा रखी थी। घने जंगल में नक्सलियों ने आईईडी विस्फोट के जरिए सीआरपीएफ की कोबरा टीम को नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया। उस हमले में बिभोर कुमार सिंह ने अपनी दोनों टांगें गंवा दीं। बुरी तरह से जख्मी होने के बावजूद धैर्य और युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते हुए बिभोर सिंह ने अपने जवानों की हौसला अफजाई की। उन्होंने अपने साथियों की मदद से नक्सलियों को खदेड़ते हुए कोबरा दस्ते की सुरक्षित वापसी सुनिश्चित की।

49वें बैच के युवा और गतिशील अफसर हैं बिभोर

सीआरपीएफ डीजी अनीश दयाल सिंह ने बिभोर सिंह को शुभकामनाएं देते हुए कहा, गणतंत्र दिवस 2024 के अवसर पर आपके द्वारा प्रदर्शित उच्चकोटि की कर्तव्य परायणता एवं अदम्य साहस के लिए आपको शौर्य चक्र से सम्मानित किया है। भविष्य में भी आप, इसी प्रकार अदम्य साहस का उत्तरोत्तर प्रदर्शन करते हुए देश एवं बल की सेवा करते रहेंगे। सीआरपीएफ की विशिष्ट कोबरा 205वीं बटालियन के इस जांबाज सहायक कमांडेंट ने बिहार के औरंगाबाद जिले में नक्सलियों द्वारा किए गए आईईडी विस्फोट में अपने दोनों पैर खो दिए थे। बिभोर कुमार सिंह, सीआरपीएफ के सीधे नियुक्त राजपत्रित अधिकारी के 49वें बैच के एक युवा और गतिशील अधिकारी हैं। 25 फरवरी 2022 को एक विशेष अभियान, बिहार के गया और औरंगाबाद जिले के चकरबंधा वन क्षेत्र में शुरू किया गया था। वहां पर 205वीं कोबरा बटालियन के बिभोर सिंह की एक टीम का एक नक्सली समूह से सामना हुआ।

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नक्सलियों को मैदान छोड़कर भागना पड़ा

घने जंगल में चारों तरफ से फायरिंग होने लगी। नक्सलियों ने भारी गोलीबारी के बीच आईईडी विस्फोटकों की भी मदद ली। इसके परिणामस्वरूप बिभोर सिंह की दोनों टांगें, शरीर से अलग हो गईं। घायल होने के बावजूद धैर्य और युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते हुए बिभोर सिंह ने अपने जवानों की हौसला अफजाई जारी रखी। वे अपनी टीम का मनोबल बढ़ाते रहे। फायर का जवाब फायर से दिया गया। नक्सलियों को मैदान छोड़कर भागना पड़ा। शौर्य चक्र, बहादुरी और आत्म-बलिदान के कृत्यों को मान्यता देने के लिए स्थापित किया गया है। यह उन लोगों के प्रति राष्ट्र की कृतज्ञता के प्रतीक के रूप में कार्य करता है, जो कर्तव्य की पुकार से ऊपर और परे चले जाते हैं। सशस्त्र बलों की विभिन्न शाखाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले पुरस्कार विजेता, सेवा और समर्पण की भावना का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इससे उनके साथियों और पूरे देश को प्रेरणा मिलती है।

घायलों को 4 घंटे का सफर करना पड़ा था

केंद्रीय अर्धसैनिक बल सीआरपीएफ कोबरा के सहायक कमांडेंट बिभोर सिंह, नक्सलियों के आईईडी हमले में बुरी तरह जख्मी हो गए थे। उस हमले में हवलदार सुरेंद्र कुमार भी घायल हुए थे। जिस वक्त जंगल में सीआरपीएफ का ऑपरेशन चल रहा था, वहां आसपास के किसी भी बेस पर हेलीकॉप्टर मौजूद नहीं था। बिहार के गया तक पहुंचने के लिए घायलों को एंबुलेंस में चार घंटे का सफर करना पड़ा था। जब ये एंबुलेंस गया पहुंची तो रात को हेलीकॉप्टर उड़ाने की मंजूरी नहीं मिली। ऐसे में घायलों को 19 घंटे बाद दिल्ली एम्स लाया गया। नतीजा, सहायक कमांडेंट बिभोर सिंह की दोनों टांगें, शरीर से अलग करनी पड़ीं। एक हाथ की दो अंगुलियां भी काटनी पड़ीं।

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में खुद को इसके लिए जिम्मेदार मानता हूं

तत्कालीन डीजी कुलदीप सिंह से ‘सीआरपीएफ डे’ की पूर्व संध्या पर सीजीओ कांप्लेक्स स्थित बल मुख्यालय में आयोजित प्रेसवार्ता के दौरान एक सवाल किया गया था। उनसे पूछा गया कि घायल सहायक कमांडेंट की पत्नी ने कहा है कि उनके पति की दोनों टांगें इसलिए काटनी पड़ी हैं, क्योंकि समय पर हेलीकॉप्टर नहीं पहुंच सका था। इसके लिए जिम्मेदार कौन है। इस पर डीजी कुलदीप सिंह ने कहा था, मैं खुद को इसके लिए जिम्मेदार मानता हूं। इस मामले में कई दूसरे पक्ष भी हैं। हेलीकॉप्टर देरी से क्यों आया, वहां पर क्यों नहीं खड़ा था, बीएसएफ की तरह सीआरपीएफ के पास अपनी एयरविंग क्यों नहीं है। डीजी ने कहा, हमें मालूम है, कई बार प्रेक्टिली असुविधा होती है। किसी एक का फाल्ट है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। चौपर कहां से आता है, ये भी देखना होता है।

सीएपीएफ में समन्वय की भारी कमी है

उस वक्त बल के पूर्व अफसरों का कहना था कि सीएपीएफ में समन्वय की भारी कमी है। सीआरपीएफ के पास खुद की एयरविंग होती, तो इस तरह की दिक्कतें नहीं आतीं। जब किसी क्षेत्र में ‘ऑपरेशन’ चल रहा है, तो एक हेलीकॉप्टर वहां के बेस कैंप पर तैयार रहना चाहिए। पता नहीं कब कैसी जरूरत पड़ जाए। खुद का हेलीकॉप्टर नहीं है, इसलिए उसके आने में देरी हो जाती है। उसके बाद ऐसी शर्त लगने लगती हैं कि हम वहां लैंड करेंगे, वहां नहीं करेंगे। कभी हेलीकॉप्टर समय पर नहीं आता, तो कभी एटीसी की मंजूरी नहीं मिलती। जब अधिकारियों का हेलीकॉप्टर वहां उतर सकता है, तो घायलों को ले जाने के लिए हेलीकॉप्टर वहां क्यों नहीं आ सकता।

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